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एक भूला-बिसरा उपेक्षित साहित्यकार : भुवनेश्वर

AMIR KHURSHEED MALIK
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आज रूहेलखंड के अमर साहित्यकार भुवनेश्वर से आप को रूबरू कराने का प्रयास कर रहा हूँ । भुवनेश्वर जैसी शख्सियत को शब्दों में समेट कर प्रस्तुत करना मेरे जैसे व्यक्ति के लिए संभव नहीं है । परन्तु प्रयास कर रहा हूँ कि इतिहास के उन अनमोल पलों को हम अनुभव कर सकें । जिनमे भुवनेश्वर जैसा लेखक शाहजहांपुर से निकल कर साहित्य पटल पर अमिट छाप छोड़ गया ।
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भुवनेश्वर साहित्य जगत का ऐसा नाम है, जिसने अपने छोटे से जीवन काल में लीक से अलग किस्म का साहित्य सृजन किया । भुवनेश्वर नें मध्य वर्ग की विडंबनाओं को कटु सत्य के प्रतीरूप में उकेरा। उन्हें आधुनिक एकांकियों के जनक होने का गौरव भी हासिल है । एकांकी, कहानी, कविता, समीक्षा जैसी कई विधाओं में भुवनेश्वर ने साहित्य को नए तेवर वाली रचनाएं दीं। एक ऐसा साहित्यकार जिसने अपनी रचनाओं से आधुनिक संवेदनाओं की नई परिपाटी विकसित की। प्रेमचंद जैसे साहित्यकार ने उनको भविष्य का रचनाकार माना था। इसकी एक ख़ास वजह यह थी कि भुवनेश्वर अपने रचनाकाल से बहुत आगे की सोच के रचनाकार थे। उनकी रचनायों में कलातीतता का बोध है , परन्तु आश्चर्यजनक रूप से से यह भूतकाल से न जुड़ कर भविष्य के साथ ज्यादा प्रासंगिक नज़र आती हैं । ‘कारवां’ की भूमिका में स्वयं भुवनेश्वर ने लिखा है कि ‘विवेक और तर्क तीसरी श्रेणी के कलाकारों के चोर दरवाज़े हैं” । उनका यह मानना उनकी रचनायों में स्पष्टतया द्रष्टिगोचर भी होता भी है। इंसान को वस्तु में बदलते जाने की जो तस्वीर उन्होंने उकेरी , वो आज के समय में और भी अधिक प्रासंगिक हो जाती है।
भुवनेश्वर का जन्म शाहजहांपुर के केरुगंज (खोया मंडी) में, 1910 में एक खाते-पीते परिवार में हुआ था। परन्तु बचपन में ही माँ की मौत से अचानक परिस्थितियां उनके विपरीत हो गई । इंटरमीडिएट का ये विद्यार्थी शाहजहांपुर को अलविदा करके इलाहाबाद चला गया। उस समय के भुवनेश्वर का बौदिक ज्ञान ,हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओँ पर समान अधिकार , इंसानी रिश्तों को समझने का अदभुत नजरिया समकालीन लेखकों के लिए अचरज से कम नहीं था। परन्तु व्यक्तिगत रूप से स्वयं भुवनेश्वर का जीवन आभावों एवं कठिनताओं का पुलिंदा था । इलाहाबाद,बनारस,लखनऊ में भटकते भुवनेश्वर के लिए मित्र मंडली के घर आसरा, और कठिनाइयों का चोली दामन का साथ रहा । परन्तु इन परेशानियों में भी उनकी साहित्य यात्रा अनवरत जारी रही । एक बार स्वयं प्रेमचंद ने उनसे अपने लेखन में ‘कटुता’ कम करने की राय दी थी ,जिस पर उन्होंने कहा कि इस ‘कटुता’ की उपज के पीछे के कारणों की भी पड़ताल होनी चाहिये।शायद यही कारण , वो तमाम विसंगतियां थी , जिनका सामना उन्हें अपने जीवन में करना पड़ा ।1957 में लखनऊ स्टेशन पर भुवनेश्वर ने दुनिया को अलविदा कह दिया ।
भुवनेश्वर की साहित्य साधना बहुआयामी थी । कहानी,कविता,एकांकी,और समीक्षा सब में उनकी लेखनी एक नए कलेवर का एहसास दिलाती है । छोटी सी घटना को भी नई ,परन्तु वास्तविकता के सर्वाधिक सन्निकट द्रष्टि से देखने का नजरिया भुवनेश्वर की विशेषता है ।
हंस’ में 1933 में भुवनेश्वर का पहला एकांकी ‘श्यामा: एक वैवाहिक विडम्बना’ प्रकाशित हुआ था । 1935 में प्रकाशित एकांकी संग्रह ‘कारवां’ ने उन्हें एकांकीकार के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। भुवनेश्व र द्वारा लिखित नाटक ‘तांबे का कीड़ा’ (1946) को विश्व की किसी भी भाषा में भी लिखे गये पहले असंगत नाटक का सम्मान प्राप्त है। उनके द्वारा लिखित एकांकियों में ‘श्यामःएक वैवाहिक विडम्वना’, ‘रोमांसःरोमांच’, ‘स्ट्राइक’, ‘ऊसर’, ‘सिकन्दर’ आदि का नाम उल्लेखनीय है।
भुवनेश्वर की पहली कहानी ‘मौसी’ को प्रेमचंद ने समकालीन कहानियों के प्रतिनिधि संकलन ‘हिंदी की आदर्श कहानियां’ में स्थान दिया। उनकी कहानी ‘भेडिये’ हंस के अप्रैल 1938 अंक में प्रकाशित हुई । इस कहानी ने आधुनिक कहानियों की परम्परा में मज़बूत नीव का निर्माण किया । कैसे रेगिस्तान से गुजरता बंजारा भेडिय़ों से जान बचाने के लिए उनके आगे चुग्गा फेंकता है। कहानी और जीवन दोनों में फेंकने के इस क्रम में सबसे पहले फेंकी जाती हैं वो चीजें जो अपेक्षाकृत कम महत्व की हैं। इस कहानी ने जीवन की कडवी सच्चाई को बिना लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। कुछ साहित्यकार तो इस कहानी के मर्म को किसी मैनेजमेंट क्लास के चुनिन्दा निष्कर्षों में भी सर्वश्रेष्ट मानते हैं। ‘मौसी’, ‘लड़ाई’, ‘माँ बेटे’, ‘मास्टनी’ आदि अन्य उल्लेखनीय कहानियाँ हैं।
इसके अतिरिक्त भुवनेश्वर ने अंग्रेजी तथा हिन्दी में कुछ कविताएं तथा आलोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। परन्तु उनके कृतित्व को पहचानने में लोगों ने भूल कर दी ।शायद यही कारण था, की इस अनोखे रचनाकार को पूरा जीवन संघर्षो और विवादों में गुजारना पड़ा । प्रेमचंद ने उनसे हंस से स्थाई रूप से जुड़ने का आग्रह किया था ।परन्तु अनजाने कारणों से ये संवाद पूरा ना हो सका । हालांकि उनकी रचनाये हंस में लगातार प्रकाशित होती रहीं । लेकिन अगर वो हंस के साथ जुड़ जाते तो उनका रचना संसार कहीं अधिक विस्तृत रूप में हमारे सामने होता । उनके अंतिम समय की रचनाओं को सहेजना वाला उनके साथ कोई नहीं था , जिसके फलस्वरूप उस दौरान रफ़ कागजों के पीछे लिखा गया हिंदी और अंग्रेजी का पूर्णतया मौलिक साहित्य अंधेरों में गुम हो गया ।
भुवनेश्वर की उपलब्ध सभी रचनाओं को आज पुनः लोगों तक पंहुचाने की आवश्यकता है । आज के साहित्यकारो को भी देखना चाहिए कि आज के परिवेश में भी कहीं अधिक प्रासंगिक भुवनेश्वर की रचनाये सर्वाधिक विपरीत परस्थितियों में कैसे परवान चढ़ीं । धन्य है रूहेलखंड की धरती जिसने भुवनेश्वर जैसे लेखक को जन्म दिया । ( आमिर खुर्शीद मलिक )

भुवनेश्वर
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