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वैश्विक मंदी से दुनिया को बचाने के लिए आज पूरे विश्व के देशों को लगता है कि उनके देश का काला धन यदि निकल कर वापस आ जाए तो मंदी को मात दी जा सकती है। स्विस बैंक सहित तमाम विदेशी बैंकों में जमा काले धन में भारतीयों की हिस्सेदारी ज्यादा है। ऐसे में यहाँ उम्मीदें भी ज्यादा हैं । पर अभी तक विदेशी बैंकों में जमा काले धन को भारत वापस लाने के लिए हमारे पास ठोस कानून और सरकारी इच्छा शक्ति दोनों नहीं है । भाजपा सरकार का प्रमुख चुनावी मुद्दा कालाधन अब उनके लिए ही गले की हड्डी बन चुका है । 27 मई, 2014 को एनडीए सरकार ने कालाधन और विदेशों में जमा भारतीय राशि की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज की अध्यक्षता में स्पेशल इनवेस्टीगेशन टीम (SIT) का गठन किया। लेकिन सरकार बनने के कुछ ही दिनों के अन्दर कालाधन वापस लाने के वायदे के साथ सत्ता में आई सरकार, कालाधन के मालिकों के नाम भी सुप्रीम कोर्ट की लताड़ के बाद ही अदालत तक पहुंचा पाई । विदेशों में कालाधन रखनेवाले कुछ नामों को बताने में सरकार के संकोच और इस संबंध में सिर्फ राजनीति से यह मुद्दा कालेधन को वापस लाने और दोषियों को दंडित करने के उद्देश्य से भटक कर आरोप-प्रत्यारोप तक सिमट कर रह गया है । ऐसे में कालाधन वापस आने का सपना संजोये लोगो की तीखी प्रतिक्रिया भी स्वाभाविक है। कालेधन पर बनी एसआईटी ने जिनेवा के बैंक द्वारा उपलब्ध कराई गई खाताधारकों की सूची की जांच में पाया है कि आधे खातों में तो पैसा ही नहीं है। इतना ही नहीं सूची में उपलब्ध कराए गए सैंकड़ो नामों को रिपीट भी किया गया है। एसआईटी ने पाया है कि एचएसबीसी बैंक के 289 खातों में कोई रकम नहीं दिख रही है, जबकि 122 नाम उसी सूची में दोबारा से लिखे गए हैं। । सबसे बड़ा सवाल ये है कि देश की जनता की नामों में दिलचस्पी तो है लेकिन वो ये भी जानना चाहती है कि पैसे कब आएंगे। क्या विदेश से पैसे लाना सही में काफी मुश्किल काम है ? और क्या नाम में उलझा कर बीजेपी सिर्फ अपने चुनावी वादे को पूरा करने की रस्म भर निभा रही है ? अगर इस काले धन का 10 प्रतिशत हिस्सा भी भारत में आ जाए, तो उससे भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है । ऐसे में गंभीर प्रयास होना जरूरी हैं । काले धन को वापस लाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जरूरी है कि सरकार प्रबल इच्छा शक्ति का परिचय दे।
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